Book Title: Sagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pandit, Lalaram Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 356
________________ ३०६ ] चौथा अध्याय आगे - परिग्रहपरिमाणके पांच अतिचार छोडने के लिये कहते हैं वास्तुक्षेत्रे योगाद्धनधान्ये बंधनात्कनकरूप्ये | दानात्कुप्ये भावान्न गवादौ गर्भतो मितिमतियात् ||६४|| अर्थ - घर खेत इन दोनोंमें दूसरा घर अथवा दूसरा खेत मिलाकर कियेहुये परिमाणका अतिक्रमण नहीं करना चाहिये । तथा रज्जू आदिसे बांधकर और वचनबद्ध करके धन धान्यके परिमाणका अतिक्रमण नहीं करना चाहिये । दूसरेको देकर सोने चांदी में और परिणामोंसे तांबे, पीतल, काष्ठ, पाषाण आदिकी वस्तुओं में अतिक्रमण नहीं करना चाहिये, और घोड़ी गाय आदि पशुओं में गर्भके आश्रय से अतिक्रमण नहीं करना चाहिये । भावार्थ - इनमें अतिक्रमण करना परिग्रहपरिमाणके अतिचार हैं। अब इसीको विस्तार के साथ कहते हैं । वास्तुक्षेत्र - घर गांव नगर आदिको वास्तु कहते हैं । घर तीन प्रकार के होते हैं खात, उच्छ्रित और खातोच्छ्रित । भूमिके नीचे के तलघरको खात, भूमिपर बनाये हुये मकानको उच्छित और जिसमें तलघर और ऊपर दुमंजिल तिमंजिल आदि मकान बने हों उसे खातोच्छ्रित कहते हैं । जिसमें अन्न उत्पन्न हो ऐसी भूमिको खेत कहते हैं उसके भी तीन भेद हैंसेतु, केतु और उभय । जो खेत केवल कूए, बावडी आदि से सींचे जाते हैं उन्हें सेतु, जो केवल वर्षाके जलसे सींचे जाते हैं

Loading...

Page Navigation
1 ... 354 355 356 357 358 359 360 361 362