Book Title: Sagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pandit, Lalaram Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 334
________________ २८४ ] चौथा अध्याय अथवा इसप्रकार समझना चाहिये कि चौरप्रयोग आदि पांचो ही स्पष्ट चोरी हैं परंतु यदि वे किसी के संबंधसे किये जायं अथवा किसी अन्य प्रकारसे किये जायं तो वे अतिचार कहलाते हैं। यहांपर कोई कोई ऐसी शंका करते हैं कि ऊपर लिखे हुये चौथप्रयोग आदि पांचो ही अतिचार राजा और राजसेवकोंके संभव नहीं हो सकते परंतु उनका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि पहिला और दूसरा अर्थात् चौरप्रयोग और चौराहृतग्रह ये दो तो राजाओंके तथा राजसेवकोंके सहज हो सकते हैं। तीसरा और चौथा अर्थात् अधिक हीनमानतुला और प्रतिरुपकव्यवहृति ये दोनों भी उनके हो सकते हैं । जब राजा अपने खजाने अथवा भंडार आदिकी तौल माप करता है अथवा सेवकोंसे कराता है उससमय उससे तथा उसके सेवकोंसे अधिक हीनमानतुला अतिचार हो सकता है । तथा जब राजा अपनी किसी वस्तु के बदले दूसरी वस्तु खरीदता है अथवा और कोई वस्तु खरीदता वा बेचता है उससमय उन दोनों के प्रतिरूपकव्यवहृति अतिचार संभव हो सकता है। इसीप्रकार विरुद्धराज्यातिक्रम भी हो सकता है । जब कोई शूर पुरुष किसी राजाकी सेवा करता है वह यदि किसीतरह अपने स्वामीके विरुद्ध राजाकी सहायता करे तो उसके विरुद्ध राज्यातिक्रम अतिचार लगता है । जब कोई मांडलिक राजा arjas

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