Book Title: Sagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pandit, Lalaram Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 341
________________ www | सागारधर्मामृत . [२९१ | बढती है और संताप होता है, इसलिये स्त्रीसंभोग ज्वरके समान सुख देनेवाला नहीं है । ॥ ५३॥ ___आगे-परस्त्रीसेवनमें भी सुख नहीं मिलता ऐसा उपदेश देते हैं समरसरसरंगोद्गममृते च काचित्क्रिया न निर्वृतये स कुतः स्यादनवस्थितचित्ततया गच्छतः परकलत्रं ॥५४॥ अर्थ-समागमसमयमें परस्पर विलक्षण प्रेम होते हुये स्त्रीपुरुषोंके अंतःकरणमें परस्पर समागमकी उत्कट इच्छा उत्पन्न होती है । उस विलक्षण प्रेमसे होनेवाली उत्कट इच्छाके विना आलिंगन चुंबन आदि कोई भी क्रिया सुख देनेवाली नहीं होती तब फिर “ मुझे कोई अपना या पराया मनुष्य देख न ले " इसप्रकारका शंकारूपी रोगसे जिसका अंतःकरण चंचल हो रहा है ऐसे परस्त्रीसेवन करनेवाले पुरुष के वह अपूर्व प्रेम और वह उत्कट इच्छा कैसे उत्पन्न हो सकती है ? अर्थात् कभी नहीं, और न उसके विना उसे सुख :मिल सकता है ॥५४॥ आगे-स्वस्त्रीसेवन करनेवाले श्रावकके भी द्रव्यहिंसा और भावहिंसा दोनों होती हैं ऐसा कहते हैं स्त्रियं भजन भजत्येव रागद्वेषौ हिनस्ति च। : योनिजंतून बहून् सूक्ष्मान् हिंस्रः स्वस्त्रीरतोप्यतः ॥५५॥

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