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चौथा अध्याय है, तथा शरीरको शिथिल वा कृश करता है और तृष्णाको बढाता है, क्योंकि स्त्रीसंभोगसे उसकी तृष्णा दिनोंदिन बढती जाती है । यह स्त्रीसंभोगका जैसा हाल है ठीक वही हाल ज्वरका है क्योंकि वह भी संतापरूप है, हित अहितके विचारको नष्ट करता है, शरीरको शिथिल वा कृश करता है और तृष्णा अर्थात् प्यासको बढाता है । इसप्रकार दोनों ही समान हैं समान दुःख देनेवाले हैं। इसलिये हे आत्मन् ! जैसे तू स्त्रीसंभोगको सुख मानता है उसीप्रकार तुझे ज्वरमें भी द्वेष नहीं करना चाहिये उसमें भी सुख ही मानना चाहिये । जब | दोनों ही समान दुःख देने वाले हैं तो फिर ज्वर दूर करनेकेलिये और फिर न आनेकेलिये उपाय करना योग्य नहीं है उलटा उसमें आनंद मानना चाहिये जैसा कि संभोगमें
आनंद मानता है । तथा यदि ज्वर जाने और फिर न आनेकेलिये उपाय करना आवश्यक है तो अपने मनसे संभोगकी इच्छा दूर करनेकेलिये और फिर उत्पन्न न होनेके लिये भी उपाय करना अत्यंत आवश्यक है । इसलिये ज्वरके समान स्त्रीसंभोगमें सुख नहीं है। आर्षमें लिखा भी है-स्त्रीभोगो न सुखं चेतःसंमोहाद्गात्रसादनात् । तृष्णानुबंधात्संतापरूपत्वाच्च यथा ज्वरः । अर्थात्-स्त्रीसंभोग ठीक ज्वरके समान है क्योंकि दोनोंसे ही चित्त मोहित हो जाता है, शरीर शिथिल हो जाता है, तृष्णा