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सागारधर्मामृत
[२९५ कल्पनाकर उसे सेवन करता है। इसलिये उसमें बुद्धिकी कल्पनासे स्वस्त्री ऐसी व्रतकी अपेक्षा होनेसे और उसे अल्पकालतक स्वीकार करनेसे सार्वकालिक व्रतका भंग नहीं होता,
और वास्तवमें वह स्वस्त्री नहीं है इसलिये व्रतका भंग भी होता है इसप्रकार और अभंग दोनों होनेसे इत्वरिकागमन भी अतिचार होता है । तथा जिसका पिता पति आदि कोई स्वामी नहीं है, जो वेश्याके समान व्यभिचारिणी है वा कोई वेश्या है ऐसी अनाथ व्यभिचारिणी स्त्री यदि स्वीकार न की हो तथापि चित्तसे उसके सेवन करनेका संकल्प करना अथवा उसके सेवन करनेकी चित्तमें लालसा रखना अतिचार है । ये ऊपर कहे हुये दोनों प्रकारके अतिचार केवल स्वदारसंतोषीको ही होते हैं परस्त्री त्यागीको नहीं, क्योंकि कुछ द्रव्य लेकर ग्रहण की हुई अपरिगृहीत इत्वरिका वेश्यारूप होनेसे अथवा स्वामीके विना अनाथ होनेसे परस्त्री नहीं गिनी जाती।
तथा भाडेरूप कुछ द्रव्य देकर कुछ कालतक ग्रहण की हुई वेश्याको सेवन करनेसे व्रतका भंग होता है क्योंकि वह कथंचित् परस्त्री भी है और लोकमें उसे कोई परस्त्री नहीं कहता इसलिये उसके व्रतका भंग नहीं भी होता है । इसप्रकार परस्त्री त्यागीके भी वेश्यासेवन अतिचार होता है । इस विषय में कितने ही आचार्योंका ऐसा मत है कि परस्त्री त्यागी श्रावकके अपरिगृहीत कुलांगना स्त्रीको सेवन करना अतिचार है क्योंकि