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चौथा अध्याय यह अभिप्राय है कि स्त्री परपुरुषका त्याग करती है वह देवोंके द्वारा अवश्य पूज्य मानी जाती है। उसमें पूज्यपना पर पुरुषके त्याग करनेसे ही होता है ॥ ५७ ॥
आगे-ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार कहते हैंइत्वरिकागमनं परविवाहकरणं विटत्वमतिचाराः । स्मरतीवाभिनिवेशोऽनंगक्रीडा च पंच तुर्ययमे ।।५८॥
अर्थ-इत्वरिकागमन, परविवाहकरण, विटत्व, स्मरतीवाभिनिवेश, और अनंगक्रीडा ये पांच सार्वकालिक ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार हैं। ____ इत्वरिकागमन-जो दुश्चरित्रा स्त्री पति अथवा पिता आदि स्वामीके न होनसे स्वतंत्र होनेके कारण गणिकापनेसे (द्रव्य लेकर ) अथवा केवल व्यभिचारमात्रकी इच्छासे परपुरुषों के साथ समागम करती है उसको इत्वरी कहते हैं । तथा जो प्रत्येक पुरुषके साथ समागम करनेकी इच्छा करती है वा समागम करती है ऐसी वेश्या भी इत्वरी कहलाती है । यहांपर कुत्सित अर्थमें क प्रत्यय हुआ है अर्थात् कुत्सित वा निंद्य इत्वरीको इत्वरिका कहते हैं। ऐसी स्त्रीको सेवन करना प्रथम अतिचार है । यह प्रकरण इसप्रकार समझना चाहिये कि ब्रह्माणुव्रती श्रावक किसी वेश्या वा दासी आदि व्यभिचारिणी स्त्रीको भाड़ेरूप कुछ द्रव्य देकर किसी नियतकालपर्यंत स्वीकार करता है और उतने समयतक उसमें स्वस्त्रीकी