Book Title: Sagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pandit, Lalaram Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 346
________________ २९६ ] चौथा अध्याय जिसका कोई स्वामी नहीं है ऐसी अनाथ स्त्री परस्त्री नहीं हो सकती और सेवन करनेवाला भी " यह परस्त्री नहीं है " एसी ही कल्पना करके उसे सेवन करता है इसकारण इसमें अंतरंग व्रतका भंग नहीं होता । तथा लोकमें उसे परस्त्री कहते हैं इसकारण व्रतका भंग भी हुआ इसप्रकार यह भी भंग अभंगरुप होने से अतिचार होता है । तत्त्वार्थमहाशास्त्रमें इत्वरिका परिगृहीतागमन और इत्वरिका अपरिगृहीतागमन अर्थात् सनाथ कुटिला स्त्रीको सेवन करना और अनाथ कुटिला स्त्रीको सेवन करना ऐसे दो अतिचार माने हैं वे भी ऊपरके कथन करनेसे संगृहीत होजाते हैं इसप्रकार परस्त्रीत्यागके अतिचार समझना। तथा परविवाहकरण आदि शेषके चार अतिचार स्वदारसंतोष और परस्त्रीत्याग दोनोंमें लगते हैं। इसप्रकार प्रथम अतिचारका विवेचन जानना । परविवाह करण--कन्यादानके फलकी इच्छासे अथवा किसीके अनुरागसे अपनी संतान के सिवाय अन्य पुत्र पुत्रियों के विवाह करनेको परविवाहकरण कहते हैं । जिसके स्वदारसंतोषव्रत है उसके ऐसा नियम है कि मैं अपनी स्त्रीको । छोडकर अन्य जगह मन वचन कायसे मैथुन न करूंगा और न कराऊंगा । तथा परस्त्री त्यागवालेके स्वस्त्री और वेश्याको छोडकर दूसरी जगह मैथुन करने करानेका त्याग होता है । इसलिये दोनों प्रकारके ब्रह्माणुव्रतियों के परविवाह करना मैथुन

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