Book Title: Sagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pandit, Lalaram Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 349
________________ - सागारधर्मामृत [२९९ भी अनेक कुत्सित चेष्टायें करता है, शक्तिका हास होनेपर शक्तिवर्द्धक, तथा कामोद्दीपक औषधियों का सेवन करता है और समझता है कि इन औषधियोंसे हाथी और घोडेके समान समर्थ हो जाऊंगा। यह सब कामकी तीव्रता नामका चौथा अतिचार है। अनंगक्रीडा-कामसेवन योनि मेहन अंगोंसे भिन्न मुखादि अंगोंमें क्रीडा करनेको अनंगक्रीडा कहते हैं, केश कर्षण भादिसे क्रीडा करता हुआ प्रबल रागको उत्पन्न करना, संभोग करनेके बाद भी किसी दूसरी तरह स्त्रीकी योनिको कुथित करना आदि कुचेष्टाओंको भी अनंगक्रीडा कहते हैं। जब श्रावक महापापसे डरकर ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहता है परंतु चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे तजन्य वेदनाको सहन न कर सकनेके कारण ब्रह्मचर्य धारण कर नहीं सकता तब उस मनोविकारकी शांति के लिये स्वदारसंतोष अथवा परस्त्रीत्याग व्रतको स्वीकार करता है। ऐसी दशामें जब मनोविकारसे उत्पन्न होनेवाली वेदनाकी शांति मैथुनमात्रसे ही हो सकती है तब यह अर्थात् सिद्ध है कि विटत्व कामतीब्राभिनिवेश और अनंगक्रीडा ये तीनों ही निषिद्ध हैं अर्थात् त्याग करनेयोग्य हैं । इन तीनोंसे कुछ लाभ भी नहीं होता किंतु | तत्काल अत्यंत रागोद्दीपन होना, बलका नाश होना और राजयक्ष्मा आदि रोग होना इसप्रकारके अनेक दोष उत्पन्न

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