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________________ २९४ ] चौथा अध्याय यह अभिप्राय है कि स्त्री परपुरुषका त्याग करती है वह देवोंके द्वारा अवश्य पूज्य मानी जाती है। उसमें पूज्यपना पर पुरुषके त्याग करनेसे ही होता है ॥ ५७ ॥ आगे-ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार कहते हैंइत्वरिकागमनं परविवाहकरणं विटत्वमतिचाराः । स्मरतीवाभिनिवेशोऽनंगक्रीडा च पंच तुर्ययमे ।।५८॥ अर्थ-इत्वरिकागमन, परविवाहकरण, विटत्व, स्मरतीवाभिनिवेश, और अनंगक्रीडा ये पांच सार्वकालिक ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार हैं। ____ इत्वरिकागमन-जो दुश्चरित्रा स्त्री पति अथवा पिता आदि स्वामीके न होनसे स्वतंत्र होनेके कारण गणिकापनेसे (द्रव्य लेकर ) अथवा केवल व्यभिचारमात्रकी इच्छासे परपुरुषों के साथ समागम करती है उसको इत्वरी कहते हैं । तथा जो प्रत्येक पुरुषके साथ समागम करनेकी इच्छा करती है वा समागम करती है ऐसी वेश्या भी इत्वरी कहलाती है । यहांपर कुत्सित अर्थमें क प्रत्यय हुआ है अर्थात् कुत्सित वा निंद्य इत्वरीको इत्वरिका कहते हैं। ऐसी स्त्रीको सेवन करना प्रथम अतिचार है । यह प्रकरण इसप्रकार समझना चाहिये कि ब्रह्माणुव्रती श्रावक किसी वेश्या वा दासी आदि व्यभिचारिणी स्त्रीको भाड़ेरूप कुछ द्रव्य देकर किसी नियतकालपर्यंत स्वीकार करता है और उतने समयतक उसमें स्वस्त्रीकी
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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