Book Title: Sagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pandit, Lalaram Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 342
________________ २९२ 1 चौथा अध्याय अर्थ-स्त्रीको उपभोग करनेवाले मनुष्यके अंतःकरणमें राग और द्वेष दोनों ही विकार उत्पन्न होते हैं, राग द्वेष होना ही भावहिंसा है । तथा स्त्रीकी योनिमें उत्पन्न होनेवाले अनेक सूक्ष्म जीवोंकी हिंसा भी उससे होती है यह द्रव्यहिंसा है। इसलिये स्वस्त्रीसेवन करनेवाला पुरुष दोनोंप्रकारकी हिंसा करनेसे हिंसक माना जाता है । तथा जो परस्त्रीका सेवन करता है उसके विशेष हिंसा होती है क्योंकि उसके रागद्वेषकी तीव्रता अधिक होती है । स्त्रीकी योनिमें अनेक जंतु उत्पन्न होते रहते हैं इस बातको कामसूत्रके कर्ता वात्सायन भी मानते हैं उन्होंने अपने ग्रंथमें लिखा है-"रक्तजाः कृमयः सूक्ष्मा मृदुमध्यादिशक्तयः । जन्मवर्मसु कंडूति जनयंति तथाविधां ।” अर्थात्-कोमल मध्यम और अधिक शक्तिवाले रक्तसे उत्पन्न हुये अनेक सूक्ष्म जीव योनिमें एक तरहकी खुजली उत्पन्न करते हैं।" इसलिये स्त्रीसंभोग सदा पाप उत्पन्न करनेवाला है ॥१५॥ आगे-ब्रह्मचर्यकी महिमाकी स्तुति करते हैंस्वस्त्रीमात्रेण संतुष्टो नेच्छेद्योऽन्याः स्त्रियः सदा। सोऽप्यद्भुतप्रभावः स्यात्कि वय वर्णिनः पुनः ॥५६॥ अर्थ-जो पुरुष केवल अपनी विवाहित स्त्रीसे ही सं. तुष्ट है, कभी दूसरी स्त्रीकी इच्छा नहीं करता वह पुरुष भी

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