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चौथा अध्याय है । उनमें से जिसको देशसंयमका खूब अभ्यास है ऐसे नैष्ठिक श्रावकको पहिला स्वदारसंतोष व्रत होता है और जो देशसंयमके अभ्यास करने के लिये तैयार हुआ है
अथवा जो उसका साधारण अभ्यास कर रहा है उसके | दूसरा परस्त्रीत्याग अणुव्रत होता है । श्री सोमदेव आचार्यने
भी यही बात कही है-"वधूवित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यतज्जने। माता स्वसा तनूजेति मतिर्ब्रह्म गृहाश्रमे ॥" अर्थात् ' अपनी स्त्री और वित्तस्त्री वेश्याको छोडकर शेष समस्त स्त्रियों में माता बहिन और पुत्रीके समान बुद्धि रखना गृहस्थाश्रममें ब्रह्मचर्य माना जाता है " श्रीवसुनंदिसैद्धांतिकदेवने दर्शनप्रतिमाका | स्वरूप " पंचुंबरसहियाई सत्त वि वसणाइ जो विवज्जेई सम्म
तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ" अर्थात-"जो पांचों उदंबर सहित सप्त व्यसनोंका त्यागकर विशुद्ध सम्यग्दर्शन धारण करता है वह दर्शनिक श्रापक है '' जो ऐसा कहा है उनके मत के अनुसार ब्रह्मचर्य अणुव्रतका स्वरूप इसप्रकार जानना "पव्वेसु इत्थिसेवा अणंगकीडा सया विवजेई । थूल अड वंभयारी जिणेहिं भणिदो पवयणम्मि॥' अर्थात्-"जो पर्व के दिनों में स्त्रीसेवनका त्याग करता है तथा अनंगक्रीडाका सदा त्याग करता है उसे जिनागममें स्थूलब्रह्मचारी कहते हैं " । स्वामी समंतभद्रने दर्शनिक प्रतिमाका स्वरूप जो " सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरी|रभोगनिर्विणः । पंचगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः।"
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