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सागारधर्मामृत
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से चौथा अध्याय,
आगे-व्रतप्रतिमाका निरूपण तीन अध्यायोंमें करेंगे उसमें प्रथम ही व्रतपतिमाका लक्षण कहते हैं
संपूर्णदृग्मूलगुणो निःशल्यः साम्यकाम्यया । धारयन्नुत्तरगुणानक्षूणान् वतिको भवेत् ॥१॥
अर्थ-जो पुरुष केवल उपयोगके आश्रय रहनेवाले अंतरंग अतिचारोंसे तथा चेष्टा वा क्रियाके आश्रय रहनेवाले | बहिरंग अतिचारोंसे रहित निर्मल पूर्ण सम्यग्दर्शन पालन करता है तथा दोनोंतरहके अतिचारोंसे रहित पूर्ण अखंड मूलगुणोंको धारण करता है, जो शल्यरहित है । शल्य नाम बाणका है। | जो छातीमें लगेहुये बाणके समान शरीर और मनको दुःख देनेवाला कर्मों के उदयका विकार हो उसे शल्य कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, माया और निदान । विपरीत श्रद्धानको मिथ्यात्व कहते हैं । बंचना, ठगना वा छलकपट करना माया है । तप संयम आदिसे होनेवाली विशेष आकांक्षा वाइच्छाको निदान' कहते हैं । इन तीनों शल्योंसे रहित सम्यग्दर्शन
-तपःसंयमाद्यनुभावेन कांक्षाविशेषः निदान। तवेधा प्रशस्तेतरभेदात् । प्रशस्तं पुनर्द्विविधं विमुक्तिसंसारनिमित्तभेदात् ॥ तत्र विमुक्तिनिमित्तं कर्मक्षयाद्याकांक्षा ॥ अर्थ-तपश्चरण संयम आदिके
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