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चौथा अध्याय अर्थ-जिसने घरमें रहनेका त्याग कर दिया है ऐसे गृहत्यागी श्रावकको " मैं इस सामने के जीवको मारता हूं" ऐसा मनमें कभी चितवन नहीं करना चाहिये और न ऐसे शब्द ही मुंहसे निकालने चाहिये । तथा इसीतरह "इस जीवको तू मार" और "इस जीवको यह मारता है सो बहुत अच्छा करता है" ऐसे विचार कभी मनमें नहीं लाना चाहिये और न मुंहसे ही ऐसे शब्द निकालने चाहिये। इसीप्रकार आंखसे देखने
और हाथ मुट्ठी आदिसे उठानेयोग्य पुस्तक आसन आदि जो जो उपकरण हैं उनसे होनेवाली हिंसामें भी हाथ उंगली आदि अंग उपांगसे प्रवृत्ति न करे । जैसा किसी दूसरे आचार्यने भी लिखा है-" आसनं शयनं यानं मार्गमन्यच्च वस्तुयत् । अदृष्टं तन्न सेवेत यथाकालं भजन्नपि॥" अर्थात-" श्रावकको आसन शय्या सवारी मार्ग आदि जो जो वस्तु समयानुसार काममें लानी चाहिये वह उसे देख शोधकर काममें लानी चाहिये विना देखे शोधे कभी कोई वस्तु काममें नहीं लानी चाहिये । ” यहांपर दृष्टि मुष्टि संघान अर्थात् आंखसे देखनेयोग्य और हाथ उंगली आदिसे उठानेयोग्य ऐसा जो लिखा है उसमेंसे आंखसे देखने योग्यका यह अभिप्राय है कि ज्ञानसे विचार करनेयोग्य जो क्रियायें हैं उन्हें विचारकर करे
और हाथ उंगली आदिसे उठानेयोग्यका यह अभिप्राय है कि जिस वस्तुको वह श्रावक रक्खे या उठावे उसे देख शोधकर रक्खे उठावे विना विचारकर और विना देख शोधकर कोई काम न
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