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चौथा अध्याय भी त्याग कर दिया है तो फिर बांधने वा मारनेसे उसके व्रतोंका ही भंग हो जायगा, क्योंकि जिसका त्याग किया था वही अपने हाथसे फिर हुआ। इसप्रकार भी बंध आदिको अतिचार वा दोष नहीं कह सकते । इसके सिवाय एक वात यह भी है कि कदाचित् बंध, वध, छेद आदिकों का भी त्याग कराया जायगा तो फिर व्रतोंकी संख्याका भंग हो जायगा क्योंकि प्रत्येक वतोंमें अतिचारों की संख्या बहुत है यदि उन सबका ही त्याग किया जायगा तो बहुतसे व्रत हो जायंगे
और फिर अणुव्रत पांच ही हैं ऐसा नहीं कह सकोगे । इसलिये बंध, वध, छेद आदि अतिचार नहीं है यही मानना सबसे अच्छा है । परंतु
इसका समाधान इसप्रकार है कि-श्रावकने केवल हिंसाका ही त्याग किया है बंधादिका नहीं परंतु हिंसाके त्याग करनेसे अर्थरूपसे उनका भी त्याग हो जाता है क्योंकि बंध आदि भी हिंसाके कारण हैं । इतना अवश्य है कि बांधने मारने आदिसे व्रतोंका भंग नहीं होता किंतु व्रतों में अतिचार ही लगते हैं । इसी बातको स्पष्ट रीतिसे दिखलाते हैं । व्रत दो प्रकारके हैं एक अंतरंगसे त्याग करना और दूसरा बहिरंगसे त्याग करना । उनमें से बंधन आदि करनेवालेके यद्यपि “ मैं इस जीवको मारता हूं अथवा मारूंगा" ऐसे परिणामोंका अभाव है तथापि क्रोधादि कषायोंके आवेशसे दूसरे जीवोंकी