Book Title: Sagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pandit, Lalaram Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 309
________________ सागारधर्मामृत [२५९ गृध्द्यै हुंकारादिसंज्ञां संक्लशं च पुरोऽनुगं । मुंचन्मौनमदन कुर्यात्तपःसंयमबृंहणं ॥ ३४ ॥ अर्थ-व्रती श्रावकको इष्ट भोजनकी प्राप्तिकेलिये अथवा भोजनकी इच्छा प्रगट करनेकेलिये हुं हुं करना, खकारना, भोह चलाना, मस्तक हिलाना वा उंगलि चलाना आदि अपने अभिप्राय प्रगट करनेवाले इशारोंको छोड़कर तथा भोजनके पहिले और पीछे क्रोध, दीनता आदि संक्लेशरूप परिणामोंको छोडकर इच्छाके निरोध करनेरूप तपश्चरण और इंद्रियसंयम प्राणिसंयमको बढानेवाला मौनव्रत भोजन करते समय अवश्य धारण करना चाहिये भावार्थ-मौनव्रतसे तपश्चरण और संयम बढता है इसलिये भोजन करते समय इसे अवश्य धारण करना चाहिये । मौन धारण किये पीछे भोजनकी लालसा इच्छा करनेकेलिये कोई किसी तरहका इशारा १-हुंकारांगुलिखात्कारभ्रमूर्धचलनादिभिः । मौनं विदधता संज्ञा विधातव्या न गृद्धये ॥ अर्थ-मौनव्रत धारण करनेवाले पुरुषको भोजनकी लोलुपता वा अभिलाषा करनेकेलिये हुं हुं करना, खकारना, भोह चलाना वा मस्तक हिलाना आदि क्रियाओंसे किसीतरहकी संज्ञा वा इशारा नहीं करना चाहिये । भ्रूनेत्रहुंकारकरांगुलीभिद्धिप्रवृत्यै परिवयं संज्ञां । करोति भुक्तिं विजिताक्षवृत्तिः स शुद्धमौनव्रतवृद्धिकारी ॥ अर्थ-जो जितेंद्रिय पुरुष किसी पदार्थकी आवश्यकता होनेपर भी भोंह, नेत्र, हुंकार, उंगली आदिसे संज्ञा (इशारा) करना छोडकर भोजन करता है वहीं शुद्ध मौनव्रतको बढानेवाला है ।

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