Book Title: Sagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pandit, Lalaram Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 329
________________ सागारधर्मामृत [२७९ होनेमें संदेह हो तो उसके भी न लेनेका नियम करना चाहिये ऐसा कहते हैं स्वमपि स्वं मम स्याद्वा न वेति द्वापरास्पदं । यदा तदादीयमानं व्रतभंगाय जायते ॥४९॥ अर्थ--जिससमय अपने द्रव्यमें भी " यह द्रव्य मेरा है या नहीं " ऐसा संदेह हो उससमय यदि वह उस अपने द्रव्यको भी स्वयं लेता है या अन्य किसीको दे देता है तो उसके अचौर्याणुव्रतका भंग हो जाता है । भावार्थ--जिस द्रव्यमें मेरा है या नहीं। ऐसा संदेह हो तो उसे भी नहीं लेना चाहिये ॥ ४९ ॥ आगे-अचौर्याणुव्रतके अतिचार छोडनेकेलिये कहते हैं चौरप्रयोगचौराहतग्रहावधिकहीनमानतुलं। प्रतिरूपकव्यवहृतिं विरूद्धराज्येऽप्यतिक्रमं जह्यात् ॥५०॥ __ अर्थ-अचौर्याणुव्रती श्रावकको चौरप्रयोग, चौराहृतग्रह, अधिक हीनमानतुला, प्रतिरूपकव्यवहृति और विरूद्धराज्यातिक्रम ये पांचों अतिचार छोड देने चाहिये। चौरप्रयोग-जो पुरुष स्वयं चोरी करता है अथवा किसी अन्यकी प्रेरणासे चोरी करता है उसे "तू चोरी कर" इसप्रकार प्रेरणा करना, अथवा जिसको चोरी करनेकी प्रेरणा की है उसे चोरी करनेमें " यह तू बहुत अच्छा करता है " ऐसी

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