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सागारधर्मामृत .. [२७३ | आगे--सत्याणुव्रतके पांच अतिचार छोड देनेकेलिये | कहते हैं
मिथ्यादिशं रहोभ्याख्यां कूटलेखक्रियां त्यजेत् । न्यस्तांशविस्मत्रनुज्ञां मंत्रभेदं च तद्वतः ॥ ४५ ॥
अर्थ--सत्याणुव्रत पालन करनेवाले श्रावकको मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्या, कूटलेखक्रिया न्यस्तांशविस्मर्त्रनुज्ञा, और मंत्रभेद इन पांचों अतिचारोंका त्याग कर देना चाहिये ।
मिथ्यापदेशको ही मिथ्यादिक् कहते हैं । स्वर्गमोक्षकी साधन ऐसी विशेष विशेष क्रियाओंमें किसी दूसरे पुरुषकी विपरीत प्रवृत्ति करानेको मिथ्योपदेश कहते हैं। जैसे स्वर्ग कि सतरह मिलता है, मोक्षका कारण क्या है, इत्यादि विषयमें किसीको संदेह हुआ और उसके दूर करनेकेलिये उसने पूछा तो अज्ञानसे ही स्वर्ग मोक्ष. मिलता है इत्यादि विपरीत कथन करना मिथ्योपदेश है । अथवा सत्याणुव्रती श्रावकको दूसरेको दुःख पहुंचानेवाले वचन कहना असत्य ही है । इसलिये प्रमादसे अथवा द्वेषसे जिनवचनोंसे दूसरोंको दुःख पहुंचता हो ऐसे वचन कहना सत्याणुव्रतीकोलिये अतिचार है। जैसे ' इन घोड़े ऊंटोंपर बोझा लादो' 'चोरको मारो' इत्यादि निष्प्रयोजन बचन कहना अथवा किसी विवादमें दूसरेको फंसानेकी युक्ति स्वयं कहना अथवा किसी अन्यसे कहलवाना आदि सब मिथ्योपदेश है।