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२३८ ] चौथा अध्याय भूखे जीवको भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करना चाहिये । यदि किसीने उपवास किया हो अथवा जो किसी ज्वरादि रोगसे पीडित हो तो उसे भोजन देना उचित नहीं है अर्थात् ऐसे समय भोजन न देना भी अतिचार नहीं है । तथा इसीतरह किसी तरहकी (ज्वर आदिकी अथवा किसी पापकी) शांति करनेकेलिये अपने आश्रित लोगोंसे उपवास आदि भी कराना चाहिये, ऐसे उपवास करानेमें भुक्तिनिरोधका दोष नहीं है क्योंकि वह बुरे परिणामोंसे नहीं कराया गया है। इसप्रकार यह भुक्तिनिरोध नामका अहिंसाणुव्रतका पांचवां अतिचार है । यहांपर बहुत कहने से कुछ विशेष लाभ नहीं हैं व्रती श्रावकको इतना अवश्य ध्यानमें रखना चाहिये कि जिसमें मूलगुण और अहिंसाणुव्रतमें किसीतरहका 'अतिचार न लगने पावे इसप्रकार यत्नपूर्वक अपना वर्ताव रखना चाहिये ॥१५॥
आगे--मंदबुद्धि जीवोंको सहज रीतिसे स्मरण हो इसलिये ऊपर लिखेहुये कथनको ही फिर थोडासा स्पष्ट करते हुये कहते हैं
१-व्रतानि पुण्याय भवंति जंतो ने सातिचाराणि निषेवितानि । सस्यानि किं कापि फलंति लोके मलोपलीढानि कदाचनापि ॥
अर्थ-जीवोंको व्रत करनेसे पुण्य होता है इसलिये उन व्रतोंको सातिचार पालन नहीं करना चाहिये अतिचार रहित पालन करना चाहिये। क्योंकि संसारमें मलिन धान्य बोनेसे कभी भी फल लगते हुये | देखे हैं ? अर्थात् कभी नहीं।