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सागारधर्मामृत
[२४७ दोनोंकी हिंसा की जाती है इसलिये ये दोनों ही हिंस्य हैं। द्रव्यप्राण और भावप्राणोंका वियोग करना ही हिंसा है और पापोंका संचय होना अर्थात् अशुभ कर्मोका बंध होना हिंसाका फल है ॥ २१ ॥
आगे--गृहस्थोंके लिये अहिंसा अणुव्रतके निर्मल रखनेकी विधि कहते हैं
कषायविकथानिद्राप्रणयाक्षविनिग्रहात् । नित्योदयां दयां कुर्यात्पापध्वांतरविप्रभां ॥ २२ ॥
अर्थ-क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय, भक्तकथा, स्त्रीकथा, राजकथा और देशकथा ये चार विकथा, स्नेह, निद्रा, और स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र ये पांच इंद्रियां इसप्रकार ये पंद्रह प्रमाद हैं । अहिंसाणुव्रतको निर्मल रखनेवाले श्रावकको इन पंद्रह प्रमादोंको विधिपूर्वक निरोधकर बंधन छेदन आदि अतिचाररूप पाप जोकि पुण्यरूप प्रकाशके विरोधी होनेसे अंधकार के समान हैं उन्हें दूर करनेकेलिये जो सूर्यकी 'प्रभाके समान है और जिसका नित्य उल्लास होता रहता है ऐसी दया नित्य करना चाहिये ।
१-पुण्यं तेजोमयं प्राहुः प्राहुः पापं तमोमयं । तत्पापं पुंसि किं तिष्ठेद्दयादीधितमालिनि ॥ अर्थ-पुण्य प्रकाशमय है और पाप अंधकारस्वरूप स्वरूप है ऐसा पूर्वाचार्योंने कहा है । जो पुरुष दयारूपी प्रकाशका सूर्य है ऐसे पुरुषमें अंधकाररूप कैसे रह सकता है ? अर्थात् कभी नहीं।