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चौथा अध्याय जो खाये हुये अन्नके परिपाक होनेमें कारण है अथवा मद खेद आदि दूर करनेकेलिये जो सोना है उसे निद्रा कहते हैं । 'स्नेहके वशीभूत होकर ' यह मेरा है मैं इसका स्वामी हूं" इत्यादि दुराग्रहको स्नेह वा प्रणय वा मोह कहते हैं । मार्गविरुद्ध कथाओंको विकथा कहते हैं, वे चार हैं। इनमेंसे " लड्डु, खाजे आदि पदार्थ खानेमें अच्छे होते हैं, देवदत्त इन्हें अच्छीतरह खाता है, मैं भी खाऊंगा' इसप्रकारकी खाने पीनेकी कथाको भक्तकथा वा भोजनकथा कहते हैं। स्त्रियों के अंग, हाव, भाव, वस्त्र, आभूषण आदिका वर्णन करना, उसके नेत्र अच्छे हैं वह सुंदरी है इत्यादि कहना अथवा ' कर्णाटी सुरतोपचार चतुरा लाटी विदग्धा प्रिया' इत्यादि वर्णन करना स्वीकथा है । हमारा राजा शूर है, कश्मीर के राजाके पास बहुतसा धन है, अमुक राज्यमें बहुतसे हाथी हैं, बहुतसी सेना हैं वा बहुतसे घोडे हैं इत्यादि वर्णन
१-स्नेहानुविद्धहृदयो ज्ञानचरित्रान्वितोऽपि न श्लाध्यः । दीप इवापादयिता कजलमलिनस्य कार्यस्य ॥ अर्थ-जिसका हृदय स्नेह अर्थात् मोहसे बंधाहुआ है ऐसा पुरुष ज्ञान अथवा चारित्रको धारण करलेनेपर भी मलिन कजलको उत्पन्न करनेवाले दीपके समान प्रशंसनीय नहीं है । भावार्थ-जैसे स्नेह अर्थात् तेल होनेसे दीपक कजल उत्पन्न करता है उसीप्रकार स्नेह मोह सहित जीव भी मल उत्पन्न करता रहता है।