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. सागारधर्मामृत
[२५१ __ अर्थ-जो परिषह और उपसर्गोसे कभी विचलित नहीं होता अर्थात् जीवोंकी रक्षा करनेमें सदा तत्पर रहता है ऐसे धीरवीर श्रावकको मूलगुणोंको निर्मल करनेकेलिये और महिंसाणुव्रतकी रक्षा करनेकेलिये जीवनपर्यंत मन बचन कायसे रात्रिमें रोटी, दाल, भात आदि अन्न, दूध, पानी आदि पान, पेडे, बरफी आदि खाद्य और पानसुपारी आदि लेह्य इन चारों प्रकारके आहारका त्याग कर देना चाहिये । भावार्थ-व्रती श्रावकको रात्रिमें चारों प्रकारके आहारके खानेका त्याग कर देना चाहिये ॥ २४ ॥
आगे-रात्रिभोजनमें प्रत्यक्ष परोक्ष आदि अनेक दोष होनेपर भी रात्रिभोजन करनेवालोंको वक्रोक्तिसे तिरस्कार करते हुये कहते हैं
जलोदरादिकृड्काद्यंकमप्रेक्ष्यजंतुकं ।
प्रेतायुच्छिष्टमुत्सृष्टमप्यन्निश्यहो सुखी ॥२५॥
अर्थ--जो जीव रात्रिमें भोजन करते हैं उन्हें जलोदर कुष्ट आदि अनेक रोग उत्पन्न करनेवाले ऐसे जुं को- | लिक आदि जीव जिसमें मिले हुये हैं अथवा जो ऐसे अनेक तरहके कीडोंसे कलंकित है ऐसे भोजन करने पड़ते हैं। भोजनके साथ जूं खा जानेसे जलोदर रोग हो जाता है, कोलिक खा जानेसे कुष्ट ( कोढ ) रोग हो जाता है मक्खी खाजाने
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