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सागारधर्मामृत [ २४५ आगे-मंत्र आदिसे जो बांधना छेदना आदि व्यापार किया जाता है वह भी अतिचार है ऐसा समर्थन करते हुये व्रती श्रावकको उन अतिचारोंको छोडनेकेलिये प्रयत्न करानेका उपदेश देते हैं
मंत्रादिनापि बंधादिः कृतो रज्वादिवन्मलः। तत्तथा यतनीयं स्यान्न यथा मालनं व्रतं ॥१९॥
अर्थ-मंत्र तंत्र आदिसे किये हुये बंधन ताडन आदि व्यापार भी रस्सी चाबुक आदिसे किये हुये बंधन ताडन आदिके समान अतिचार होते हैं । क्योंकि मंत्र तंत्र आदिसे जो बंधन ताड़न आदि किया जाता है उससे अहिंसा अणुव्रतमें पहिले कहे अनुसार जैसी शुद्धि होनी चाहिये वैसी नहीं होती। इसलिये व्रतोंका एकदेश भंग होनसे अतिचार गिना जाता है । अपि शब्दसे यह सूचित होता है कि रस्सी चाबुक आदिसे किये हुये बंधन ताडन आदि तो अतिचार हैं ही इसमें किसी
तरहका संदेह नहीं है। इसलिये व्रती श्रावकको मैत्री प्रमोद | आदि भावनाओंका चिंतवनकर और प्रमाद रहित अपनी
चेष्टाओंसे इसप्रकार प्रयत्न करते रहना चाहिये कि जिससे उसके व्रतमें कोई किसीप्रकारका अतिचार न लगे और उसके व्रत शुद्ध रीतिसे पालन हों । भावार्थ-मैत्री प्रमोद आदि भावनाओंसे अंतरंग व्रतका भंग नहीं हो सकता और प्रमाद रहित चेष्टासे बहिरंग व्रतका भंग नहीं हो सकता । इसप्रकार व्रती श्रावकको निर्दोष व्रत पालन करना चाहिये ॥१९॥
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