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चौथा अध्याय
क्रोधादि विद्यमान है परंतु अहिंसाणुव्रतको धारण करनेवाले श्रावकका अंतःकरण सर्वथा दयापूर्ण होना चाहिये और यदि वह वैसा न होकर क्रोध सहित हुआ तो यद्यपि उसके हाथसे साक्षात् हिंसा नहीं हुई है तथापि हिंसा के कारण क्रोधादि उत्पन्न होनेसे अंतरंग दयारूप व्रतका नाश हुआ और उस बंधनादि व्यापारसे प्रत्यक्ष प्राणहानि नहीं हुई । इसलिये बहिरंग व्रतका पालन हुआ । इसप्रकार एकदेशके भंग होने और एक देश के पालन होनेसे पूज्य आचार्योंने बंधादिको अतिचार कहा है । "
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इसके सिवाय यह जो कहा था कि व्रतोंकी संख्याका भंग होगा सो भी ठीक नहीं है क्योंकि विशुद्ध अहिंसा व्रतका सद्भाव होनेसे वध बंधन आदिका स्वयमेव अभाव हो जाता है । इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि वध आदि अतिचार
ही हैं ॥
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आगे इसी विषयको फिर दिखलाते हैं
न हुन्मीति प्रतं क्रुध्यन्निर्दयत्वान्न पाति न । भनक्त्यन्नन् देशभंगत्राणात्वतिचरत्यधीः ||१७||
अर्थ- जो श्रावक क्रोध करता है वह विचाररहित पुरुष " मैं इस जीवको नहीं मारूंगा " इस व्रतका पालन नहीं कर सकता, क्योंकि क्रोध करते समय उसका हृदय करुणा रहित