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सागारधर्मामृत
[२२२ करे । इसीप्रकार गृहत्यागी श्रावकको किसी त्रस जीवके घात करानेकेलिये किसी अन्य पुरुषसे प्रेरणा नहीं करना चाहिये अर्थात् किसी अन्यसे हिंसा नहीं कराना चाहिये और न | स्वयमेव हिंसा करते हुये किसी मनुष्यकोलिये ताली चुटकी । आदि बजाकर उसकी अनुमोदना करनी चाहिये ॥८-२॥
इसप्रकार गृहत्यागी श्रावकके अहिंसाणुव्रतकी विधि कहीं! ___ अब आगे-गृहस्थ श्रावकके अहिंसाणुव्रतका उपदेश देते हुये कहते हैं
इत्यनारंभजां जह्याद्धिंसामारंभजां प्रति व्यर्थस्थावरहिंसावद्यतनामावहेद्गृही ॥१०॥
अर्थ-जिसप्रकार गृहत्यागी श्रावक आसन उपवेशन (बैठना) आदि अनारंभ क्रियाओमें हिंसाका त्याग करता है उसीप्रकार गृहस्थ श्रावकको भी आसन शय्या आदि अनारंभ क्रियाओंमें होनेवाली हिंसाका त्याग करना चाहिये
१-हिंसा द्वेधा प्रोक्तारंभानारंभभेदतो दक्षैः । गृहवासतो निवृत्तो द्वेधापि त्रायते तां च ॥ गृहवाससेवनरतो मंदकषायः प्रवर्तितारंभः । आरंभजां स हिंसां शक्नोति न रक्षितुं नियतं ॥ अर्थ-हिंसा दो प्रकारकी है एक खेती व्यापार आदि आरंभसे होनेवाली और रखना उठाना आदि अनारंभसे होनेवाली । गृहत्यागी श्रावक इन दोनों प्रकारकी हिंसाका त्यागी होता है तथा खेती व्यापार आदि आरंभ करनेवाला
और क्रोधादि कषाय जिसके मंद होगये हैं ऐसा गृहस्थ श्रावक खेती व्यापार आदि आरंभसे होनेवाली हिंसाका त्याग नहीं कर सकता ऐसा नियम है।