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चौथा अध्याय
छोडकर श्रावकोंको वाग्गुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपानभोजन इन पांचों भावनाओंसे अहिंसा अणुव्रतको पालन करना चाहिये । ___इसका विस्तार वा खुलासा इसप्रकार है- रस्सी आदिसे गाय मनुष्य आदिकोंको बांधना वा रोक रखना बंध कहलाता है । यह अहिंसा अणुव्रतका पहिला अतिचार है। इसमें इतना विशेष है कि विनय नम्रता आदि गुण सिखानेकेलिये पुत्र शिष्य आदिकोंको भी कभी कभी रस्सी आदिसे बांधना वा रोकना पडता है परंतु वह बांधना अतिचार नहीं है इसी को दिखलाने के लिये इस श्लोकमें दुर्भावात ऐसा कहा है।
दुर्भावका अर्थ बुरे परिणाम हैं। बुरे परिणामोंसे अर्थात् तीत्र कषायके उदयसे जो रस्सी आदिसे बांधना वा रोकना है वह अतिचार है ऐसा अतिचार व्रती श्रावकको छोड देना चाहिये। इस अतिचारके छोडनेकी विधि इसप्रकार है-मनुष्य, पक्षी आदि द्विपद और घोडा, बैल आदि चतुष्पदोंको बांध रखना बंध है। वह दो प्रकारका है एक सार्थक ( जिसमें अपना कुछ प्रयोजन हो ) और दूसरा अनर्थक अर्थात् जिसमें अपना कुछ प्रयोजन न हो । इन दोनों में से जो अनर्थक बंध है वह श्रावकको करना योग्य नहीं है, अर्थात् उसे कभी नहीं करना चाहिये । सार्थक बंध भी दो प्रकारका है, एक सापेक्ष अर्थात् किसी अपेक्षासे
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