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चौथा अध्याय आगे-संकल्पी हिंसाका नियम करते हैंगृहवासो विनारंभान्नाचारंभो विना वधात् । त्याज्यः स यत्नात्तन्मुख्यो दुस्त्यजस्त्वानुषंगिकः ।।१२।।
अर्थ-खेती व्यापार आदि जो आरंभ आजीविकाके उपाय हैं उनके विना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता, और खेती व्यापार आदि आरंभ विना हिंसाके नहीं होसकते इसलिये श्रावकको "मैं अपने इस प्रयोजन के लिये इस जीवको मारता हूं" ऐसे संकल्पपूर्वक जो संकल्पी हिंसा है उसका त्याग प्रयत्नपूर्वक अर्थात् सावधानीसे अवश्य कर देना चाहिये । क्योंकि खेती व्यापार आदि आरंभसे होनेवाली हिंसाका त्याग करना गृहस्थ श्रावक के लिये अति कठिन है ॥ १२ ॥ आगे-प्रयत्नपूर्वक त्याग करनेयोग्य हिंसाका उपदेश देते हैंदुःखमुत्पद्यते जंतोर्मनः संक्लिश्यतेऽस्यते । तत्पर्यायश्च यस्यां सा हिंसा हेया प्रयत्नतः ॥ १३ ॥
अर्थ-जिस हिंसाके करनेसे अपने जीव और परजीवको दुःख होता है अर्थात् अपने पराये शरीरको कष्ट पहुंचता है, तथा उसके मनको अत्यंत संताप होता है और जिसकी हिंसा की जाती है उस जीवकी वर्तमानकाल की पर्याय नष्ट हो जाती है ऐसी हिंसा गृहस्थ श्रावकको प्रयत्नपूर्वक छोड देनी चाहिये ॥१३॥
आगे—यहांसे आगे अहिंसा अणुव्रतकी आराधना
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