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सागारधर्मामृत
[ २३३ करनेका उपदेश देनेकेलिये लिखेंगे उसमेंभी पहिले अणुव्रत पालन करनेवाले श्रावकको उद्देशकर कहते हैं
संतोषपोषतो यःस्यादल्पारंभपरिग्रहः । भावशुध्धकसर्गोऽसावहिंसाणुव्रतं भजेत् ।।१४॥
अर्थ-जो श्रावक अधिक संतोष होनेसे खेती व्यापार आदि थोडा आरंभ करता है तथा स्त्री, पुत्र,धन, धान्य आदि परिग्रहमें ' यह मेरा है मैं इनका स्वामी हूं' ऐसा ममत्व परिणाम भी थोडा रखता है, अर्थात् जिसे आरंभ परिग्रह से आर्त और रौद्रध्यान विशेषरूपसे नहीं होता, थोडे ही आरंभ परिग्रहमें जो संतुष्ट रहता है, तथा जो मनको विशुद्ध रखनेमें सदा तल्लीन रहता है ऐसे गृहस्थको अहिंसा अणुव्रत पालन करना चाहिये ॥१४॥
आगे-पांचों अतिचारोंको टालकर वचनगुप्ति, मनोगुप्ति आदि पांचप्रकारकी भावनाओंसे अहिंसा अणुव्रतको साधन | करना चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं
मुंचन् बधं वधच्छेदमतिभाराधिरोपणं । मुक्तिरोधं च दुर्भावाद्भावनाभिस्तदाविशेत् ॥१५॥
अर्थ--किसी दुष्ट हेतुसे किये हुये बंध आदि पांचों अर्थात् बांधना, मारना, छेदना, अधिक बोझा लादना तथा अन्न|पानका निरोध करना इन पांचों अहिंसा अणुव्रतोंके अतिचारोंको
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