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की इच्छासे ही नती शल्यरहित
सागारधर्मामृत
[२१३ लाभ या अन्यकी इच्छासे नहीं । यदि वह किसी लाभ आदिकी इच्छासे ही व्रत पालन करै तो वह व्रती नहीं समझा जा सकता । तथा वह व्रती शल्यरहित होना चाहिये । यहांपर कदाचित् कोई यह प्रश्न करे कि 'संपूर्णदृग्मूलगुणः' अर्थात् 'जिसके सम्यग्दर्शन और मूलगुण पूर्ण हैं। ऐसा कहनेसे ही उसके शल्योंका अभाव सिद्ध होता है फिर "वह शल्यरहित होना चाहिये" यह विशेषण व्यर्थ ही क्यों दिया है ? परंतु इसका समाधान इसप्रकार है कि तुम कहते हो वह ठीक है
मूलगुणः'
ही
अप्रशस्त निदानके भी दो भेद हैं-एक भोगार्थनिदान और दूसरा मानार्थ निदान । एक घातकत्व निदान भी है परंतु वह मानार्थनिदानमें अंतर्भूत हो जाता है इसलिये उसे अलग नहीं कहा है।
ऊपर लिखे निदानोंमेंसे पहिली प्रतिमा धारण करनेवालेको मुक्तिनिदान ही उपकारी है, बाकीके तीन निदान साक्षात् व परंपरासे जन्ममरणरूप दुःखोंके ही कारण हैं इसलिये ये कभी नहीं करने चाहिये क्योंकि
मोक्षेऽपि मोहादभिलाषदोषो विशेषतो मोक्षनिषेधकारी। यतस्ततोऽध्यात्मरतो मुमुक्षुर्भवेत्किमन्यत्र कृताभिलाषः॥ अर्थ-कदाचित् किसी जीवको मोहकर्मके उदयसे मोक्षकी अभिलाषा होती है, परंतु यह अभिलाषा भी विशेषकर मोक्षसे रोकनेवाली है। क्योंकि मोक्षाभिलाषी जीवको निरंतर आत्मामें लीन होना चाहिये उसे अन्य किसीकी भाभिलाषा करना उचित नहीं है ।