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चौथा अध्याय भी इसमें शामिल किया जाता है " अर्थात् अहिंसा अणुव्रती | निरपराधी जीवकी संकल्पपूर्वक हिंसाका भी त्यागी होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि अणुव्रती निरपराधी जीवोंकी संकल्पपूर्वक हिंसाका त्यागी है वह अपराधी जीवोंकी संकल्पी हिंसाका त्याग नहीं भी कर सकता है । इसलिये ही “ दंडो हि केवलो लोकमिमं चामुं च रक्षति । राज्ञा शत्रौ च पुत्रे च यथादोषं समं धृतः ।" अर्थात्-" चाहे वह राजाका शत्रु हो अथवा पुत्र हो उसके किये हुये दोषके अनुसार दंड देना ही राजाको इस लोक और पर लोकमें रक्षा करता है।" इस वचनसे अपराधी जीवोंको उनके अपराध के अनुसार यथायोग्य दंड देनेवाले चक्रवर्ती आदि राजाओंके भी अणुव्रत हो सकते हैं तथा — अणुव्रत धारण करनेवालोंने भी अनेक युद्ध किये हैं अनेक शत्रुओंको मारा है ' आदि जो अनेक पुराणों में सुना जाता है उसमें भी कोई विरोध नहीं आता है। क्योंकि उन्होंने अपने पदके अनुसार अणुव्रत ग्रहण किये थे ॥५॥
१-पंगुकुष्टिकुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजंतूनां हिंसां संकल्पतस्त्यजेत् ॥ अर्थ-लंगडे होना, कोढी होना, बहिरा होना, कुबडा होना आदि सब हिंसाके फल हैं। ऐसा देखकर बुद्धिमानोंको निरपराधी जीवोंकी संकल्पपूर्वक हिंसाका त्याग अवश्य कर देना चाहिये।