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तीसरा अध्याय ___अर्थ--जो वस्तु इसलोक और परलोकमें अपाय करने. वाली अर्थात् कल्याणसे अलग रखनेवाली है अकल्याण करनेवाली है और अवद्य अर्थात् निंद्य है ऐसी वस्तुका संकल्पपूर्वक जैसे स्वयं त्याग करता है उसीप्रकार अपना व्रत शुद्ध रखनेकेलिये किसी दूसरे पुरुषके काममें उस त्यागी हुई वस्तुका प्रयोग | नहीं करना चाहिये । भावार्थ-जिस वस्तुका स्वयं त्याग कर दिया है उसे दुसरेको खिलाना या दूसरेके काममें लानेका त्याग भी कर देना चाहिये ॥२४॥
इसप्रकार जिसने दर्शनप्रतिमा धारण की है ऐसे श्रावकोंको अपनी प्रतिज्ञा निर्वाह करने के लिये आगे के श्लोकोंसे कुछ शिक्षा देते हुये कहते हैं
अनारंभवधं मुंचेच्चरेन्नारंभमुद्धरं । स्वाचाराप्रतिलोभेन लोकाचारं प्रमाणयेत् ॥२५।। __ अर्थ-दर्शनिक श्रावक तप संयम आदिका साधन जो अपना शरीर है उसकी स्थितिके लिये जो खेती व्यापार आदि करता है ऐसी क्रियाओंके सिवाय उसे अन्य सब प्राणियोंकी हिंसाका त्याग कर देना चाहिये । भावार्थ-शरीरकी स्थितिके लिये जो खेती व्यापार आदिमें हिंसा होती है वह तो होती ही है इसके सिवाय बाकी सब हिंसाका त्याग कर देना चाहिये । ऐसा कहनेसे स्वामी समंतभद्राचार्यने दर्शनप्रतिमाका लक्षण | " दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः " अर्थात "दर्शनिक श्रावक तात्तिक