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तीसरा अध्याय
वातको कुमार्ग से बचना और कुल तथा लोकके व्यवहार में निपुण होना आदि बातोंको पहिले स्वयं कर लेना चाहिये और फिर वैसा ही पुत्रको बना लेना चाहिये । यदि वह स्वयं इन बातों में निपुण न होगा तो वह अपने पुत्रको भी कभी निपुण नहीं कर सकता । यद्यपि वह भाई भतीजे आदिको पुत्र मान सकता है वा दत्तक लेसकता है परंतु वे न तो अपने समान ही हो सकेंगे और न औरस पुत्रकी बराबरी ही कर सकेंगे । इसलिये औरस पुत्र उत्पन्न करनेके लिये स्त्रीकी रक्षा करना आवश्यक है || ३० ॥
आगे - श्रावक को अपने पुत्रके विना आगेकी प्रतिमायें प्राप्त होना कठिन है इसी विषयको उदाहरण दिखलाते हुये कहते हैं
विना स्वपुत्रं कुत्र स्वं न्यस्य भारं निराकुलः । गृही सुशिष्यं गणिवत्प्रोत्सहत परे पदे ॥ ३१ ॥
अर्थ - जिसप्रकार धर्माचार्य अपने ही समान अर्थात् आचार्य पदकी योग्यता रखनेवाले शिष्य के विना संघके निर्वाह कररूप भारको छोड़ नहीं सकता और संघका भार छोडे बिना निराकुल होकर अपने आत्माके शुद्ध संस्कार करने अथवा मोक्ष प्राप्त करने में उत्साह नहीं कर सकता, उसीप्रकार दर्शनिक श्रावक अथवा गृहस्थ भी अपने ही समान पुत्रके विना अपने कुटुंब के पालन करनेका भार किसपर छोडकर