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तीसरी अध्याय पति के अनुकूल ही सब काम करना चाहिये । क्योंकि पतिकी सेवा करना ही जिन का व्रत है, जिनकी प्रतिज्ञा है, अथवा पतिकी सेवा करना ही जिनकी शुभ कर्ममें प्रवृत्ति वा अशुभ कर्मसे निवृत्तिरूप व्रत है ऐसी पतिव्रता स्त्रियां ही धर्म अर्थात् पुण्य, श्री अर्थात् विभूति वा सरस्वती, तथा आनंद और कीर्ति इनका एक घर वा ध्वजा हैं । भावार्थ-पतिव्रता स्त्री ही धर्म सेवन करनेवाली है, वही श्रीमती अर्थात् विभूति और सरस्वतीको धारण करनेवाली है, वही आनंद वा सुख भोगनेवाली और अपनी कीर्ति फैलानेवाली है । इसलिये स्त्रियों को सदा पतिके अनुकूल ही चलना चाहिये ॥२८॥
आगे-धर्म, अर्थ और शरीरकी रक्षा करनेवाले पुरुषको अपनी कुलस्त्रीमें भी अत्यंत आसक्त नहीं होना चाहिये | ऐसा कहते हैं
भजेदेहमनस्तापशमांतं स्त्रियमन्नवत् । क्षीयते खलु धर्मार्थकायास्तदतिसेवया ॥२९॥
अर्थ-जिसप्रकार देह और मनका संताप दूर करनेकेलिये परिमित अन्नका सेवन किया जाता है उसीप्रकार दर्शनिक श्रावकको अथवा ब्राह्मण क्षत्रिय और गृहस्थ इन तीनों वर्गोंको शरीर और मनके संतापकी शांति जितनेमें हो उतना ही परिमित स्त्रीका सेवन करना चाहिये। क्योंकि जिसप्रकार