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दूसरा अध्याय पूजा करे तो वह अंतरंग और बहिरंग विभूतिसे अवश्य ही वृद्धिको प्राप्त होता है। क्योंकि सिद्ध भगवान् आचार्य उपाध्याय साधु और धर्म ये सब अरहंतदेवके समान ही लोकमें उत्कृष्ट हैं उन्हीं के समान शरण हैं अर्थात् पापोंसे रक्षा करनेवाले वा दुःख दूर करनेवाले हैं और उन्हीं अरहंतदेवके समान मंगलस्वरूप हैं अर्थात् पापोंको नष्ट करनेवाले हैं और पुण्य बढानेवाले हैं। अभिप्राय यह है कि अरहंत सिद्ध साधु और धर्म ये चारों समान हैं इनकी समान रीतिसे पूजा करनी चाहिये ।।४२॥
आगे-पूज्य पूजाविधिको प्रकाशकर सबसे बड़ा उपकार करनेवाला श्रुत देवता है इसलिये उसके पूजन करने के लिये कहते हैं
यत्प्रसादान्न जातु स्यात्पूज्यपूजाव्यतिक्रमः । तां पूजयेज्जगत्पूज्यां स्यात्कारोडुमरां गिरं ।। ४३ ॥
अर्थ-जिसके प्रसादसे पूज्य अर्थात् अरहंत सिद्ध साधु और धर्मकी पूजा करनेमें शास्त्रोक्त विधिका कभी उल्लंघन नहीं होता अर्थात् जिसके प्रसादसे पूजाको शास्त्रानुसार विधि जानी जाती है, सब लोग जिसकी पूजा करते हैं और जो ' स्यात् ।। वा ' कथंचित् ' शब्दके प्रयोगसे सर्वथा एकांतवादियोंसे अजेय | है अर्थात् कोई जिसका उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसी श्रुतदेवता अर्थात् जिनवाणीकी पूजा भी कल्याण चाहनेवाले | पाक्षिक श्रावकोंको अवश्य करनी चाहिये ॥ ४३ ॥
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