________________
१७६]
तीसरा अध्याय 10 तीसरा अध्याय -
आगे--प्रथम ही नैष्ठिकका लक्षण कहते हैंदेशयमनकषायक्षयोपशमतारतम्यवशतः स्यात् । दर्शनिकायेकादशदशावशो नैष्ठिकः सुलेश्यतरः।।१॥
अर्थ-देशसंयमको घात करनेवाले अप्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषायका ज्यों |ज्यों 'क्षयोपशम होता जाता है अर्थात् जिसमें मद्यत्याग आदि मूलगुण अतिचार रहित निर्मल पालन किये जाते हैं और शुद्ध सम्यग्दर्शन है ऐसी दर्शनप्रतिमासे लेकर आगे अप्रत्याख्यानावरण कषायोंका जैसाजैसा अधिक क्षयोपशम होता जाता है उसीके अनुसार दनिक व्रत आदि जो संयमके ग्यारह स्थान प्रगट होते हैं जिन्हें ग्यारह प्रतिमा कहते हैं। उन ग्यारह प्रतिमाओंके जो वशीभूत है, आधीन है अर्थात् उन ग्यारह प्रतिमाओंका जो पालन करते हैं। भावार्थ-जो
१-अनंतामुबंधी क्रोध मान माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ इन सर्वघाती आठों प्रकृतियोंके उदयाभावी क्षय होनेसे तथा इन्ही आठों प्रकृतियोंकी सत्तावस्थाका उपशम होनेसे और प्रत्याख्यानावरण संज्वलन नोकषाय इन देशघाती प्रकृतियोंका यथासंभव उदय होनेसे देशसंयम प्रगट होता है।