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सागारधर्मामृत
[१७५ अनुसार प्राप्त हुये हैं ऐसे आत्माके परिणामोंको धारण करनेवाले तथा उत्तरोत्तर बढते हुये ऐसे वैराग्यरूपी वृक्षके दर्शनिक व्रत आदि ग्यारह प्रतिमारूप फलोंका स्वाद लेता हुआ अर्थात् अनुभव करता हुआ और उन प्रतिमारूप फलोंके स्वाद लेनेसे ही जिसकी सामर्थ्य प्रगट होगई है ऐसा यह पाक्षिक श्रावक सल्लेखनाके अंतमें होनेवाला जो मुनियोंका धर्मरूप राजभवन है उसपर चढौ । भावार्थ- इस पाक्षिक श्रावकको स्वाध्याय आदिके द्वारा भोगादिकोंसे उदास होकर अनुक्रमसे ग्यारह प्रतिमाओंको धारण करते हुये सल्लेखना अर्थात् ग्यारहवीं प्रतिमाके अंतमें मुनिव्रत धारण करना चाहिये । इसप्रकार पंडितप्रवर आशाधरविरचित स्वोपज्ञ सागारधर्मको प्रकाश करनेवाली भव्यकुमुदचंद्रिका टीकाके अनुसार हिंदीभाषानुवादमें दूसरा अध्याय (प्रारंभसे
ग्यारहवां ) समाप्त हुआ।
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