________________
vvvvvvv
VVVY
| १९० ]
तीसरा अध्याय संसारमें उसकी निंदा भी होती है और उसके अष्टमूलगुण भी नष्ट हो जाते हैं ॥ १० ॥
इसप्रकार सामान्य रीतिसे मूलवतोंके अतिचार दूर क| रनेके लिये निरूपण कर चुके ।
____ अब आगे-मद्यत्याग आदि व्रतोंके अतिचार दूर करनेके लिये कहते हैं
संधानकं त्यजेत्सर्व दधि तक्रं व्यहोषितं । कांजिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा ॥११॥ __ अर्थ--दर्शनिक श्रावकको अचार मुरब्बा आदि सब प्रकारका संधान नहीं खाना चाहिये, दहीवडाका भी त्याग करना चाहिये । इसका भी कारण यह है कि अचार आदिमें बहुतसे जीव उत्पन्न होते रहते हैं । दूसरी जगह लिखा भी है" जायतेऽनंतशो यत्र प्राणिनो रसकायिकाः । संधानानि न बल्भ्यते तानि सर्वाणि भाक्तिका : ॥” अर्थात् " भक्त लोग जिसमें रसकायके अनंत जीव उत्पन्न होते रहते हैं ऐसे सब तरहके संधानोंको नहीं खाते हैं।" तथा इसीतरह जिसे दो दिन और दो रात वीतचुकी हैं ऐसे दही और छाछको नहीं खाना चाहिये और जिसके ऊपर सफेद सफेद फूलसे आगये हैं अथवा जिसे दो दिन और दो रात वीतचुकी हैं ऐसी कांजी अन्न पानका सेवन नहीं करना चाहिये और न कभी उसके बर्तन आदि चीजोंसे स्पर्श करना चाहिये ।
-