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तीसरा अध्याय श्रावककी बुद्धि एक रूपसे परमेष्ठी के चरणकमलों में है परंतु पाक्षिककी बुद्धि एकरूपसे परमेष्ठीके चरणों में नहीं है वह शासनदेवता आदिके आराधन करनेमें भी लगती हैं। इसी तरह "एवंभूतनयकी अपेक्षासे दर्शनिक श्रावक कहते हैं" यह जो लिखा है उसका यह अभिप्राय है कि उपर लिखे हुये गुण जिसमें हैं वह एवंभूत नयसे दर्शनिक श्रावक है और जो पाक्षिक के आचरण पालन करता है अर्थात् जो पाक्षिक है वह नैगम नयकी अपेक्षासे दर्शनिकश्रावक है। इसप्रकार कहनेसे श्री समंतभद्रस्वामीने जो लिखा है "श्रावक पदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणः पूर्वगुणैः सह संतिष्ठते क्रम विवृद्धाः" अर्थात् "भगवानने श्रावकोंके ग्यारह स्थान (प्रतिमा) कहे हैं उनमें अपने अपने स्थानके गुण पहिली प्रतिमाके गुणों के साथ साथ क्रमसे बढते हुये रहते हैं" । इसमें भी कोई विरोध नहीं आता । भावार्थ-जब श्रावकके ग्यारह ही स्थान हैं तब ग्यारह प्रतिमाधारियोंकी ही श्रावक संज्ञा होगी पाक्षिककी श्रावक संज्ञा नहीं होगी, परंतु द्रव्यानिक्षेपसे पाक्षिककी भी दर्शनिकसंज्ञा माननेसे कोई विरोध नहीं आता। इसलिये दर्शनप्रतिमाका जो ऊपर लक्षण लिखा गया है वह एवंभूत नयकी अपेक्षासे है नैगमनय अथवा द्रव्यानक्षेपसे पाक्षिकको भी दर्शनिक कहते हैं ॥ ८ ॥ ___आगे-मद्यत्याग आदि व्रतोंको प्रगट करनेके लिये