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सागारधर्मामृत [१९५ निंद्य वा अतिचार हैं । दर्शनिक श्रावकको ऐसे अतिचार कभी नहीं लगाने चाहिये ॥ १६ ॥
आगे-श्री वसुनंदि सिद्धांतचक्रवर्तीने दर्शनिक श्रावकका लक्षण ऐसा लिखा है-" पंचोदुंबरसहिया सत्तवि वसणाइ जो विवजेई । सम्मत्त विसुद्धमई सो दंसण सावओ भणिओ।" अर्थात-" जिसने पांचों उदंबरोंके साथ सप्त व्यसनोंका त्याग कर दिया है और सम्यग्दर्शनसे जिसकी बुद्धि विशुद्ध हो रही है उसे दर्शनिक श्रावक कहते हैं । " इसीके अनुसार जूआ आदि व्यसनोंके छोडनेका उपदेश देनेकेलिये इन व्यसनोंसे इस लोकमें नाश होता है और परलोकमें निंद्य होना पडता है इसीको उदाहरण दिखलाते हुये कहते हैं
द्यूताद्धर्मतुजो बकस्य पिशितान्मद्याद्यदूनां विपचारोः कामुकया शिवस्य चुरया यद्ब्रह्मदत्तस्य च । पापा परदारतो दशमुखस्योच्चैरनुश्रूयते . द्यूतादिव्यसनानि घोरदुरितान्युज्झेत्तदायविधा ॥ १७ ॥
अर्थ-जूआ खेलनेसे महाराज युधिष्ठरको, मांस भक्षण करनेसे राजा बकको, मद्यपान करनेसे यदुवंशियोंको, वेश्यासेवन करनेसे शेठ चारुदत्तको, चोरी करनेसे शिवभूति ब्राह्मणको, शिकार खेलनेसे ब्रह्मदत्त अंतिम चक्रवर्तीको और परस्त्रीकी अभिलाषा करनेसे रावणको बडी भारी विपत्ति आई थी
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