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सागारधर्मामृत
[१८७ | भागेकी प्रतिमाओके धारण करनेमें उत्कंठित है और जो केवल शरीरकी रक्षा करनेके लिये अपने वर्ण, कुल और व्रतोंके मनुसार खेती व्यापार आदि आजीविका करता है उसे एवंभूत नयकी अपेक्षासे दर्शनिक श्रावक कहते हैं । यहां इतना और समझलेना चाहिये कि दर्शन प्रतिमाको धारण करनेवाला विषय सेवन करनेकेलिये आजीविका नहीं करता केवल शरीररक्षा और कुटुंब पालन करनेकेलिये करता है। तथा यह जो लिखा कि " वह भारी विपत्ति पडनेपर भी उसके दूर करनेके लिये शासन देवताओंका आराधन कभी नहीं करता इसका यह अभिप्राय है कि दर्शन प्रतिमावाला विपत्ति दूर करनेके लिये शासनदेवताओंका आराधन नहीं करता, किंतु पाक्षिक श्रावक विपत्ति आदि पड़नेपर उसके दूर करनेके लिये शासनदेवताओंका आराधन कर सकता है। इसी आभिप्रायको सूचित करनेके लिये “परमष्ठिपदकधीः" इस पदमें एक शब्द दिया है । अर्थात् दर्शनप्रतिमा धारी है यदि उसकी नीम पक्की न हो तो वह ठहर नहीं सकता। इसीतरह मूलगुणके अभावमें उत्तरगुण नहीं हो सकते। .
१-कृर्षि वणिज्यां गोरक्ष्यमुपायैर्गुणिनं नृपं । लोकद्वयाविरुद्धां च धनार्थी संश्रयेत् क्रियां ॥ अर्थ-जिसको धनकी इच्छा है वह किसी उपायसे गुणी राजाका आश्रय लेकर दोनों लोकोंसे आविरुद्ध ऐसी कृषि, व्यापार गोरक्षण आदि क्रियाओंको करै ।