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तीसरा अध्याय प्रतिमाका पालन करते हैं और जिनके उत्तरोत्तर विशुद्ध लेश्यायें हैं ऐसे श्रावकोंको नैष्ठिक श्रावक कहते हैं ॥ १ ॥ द्वेषरहित, हित और अहितका विचार करनेवाला, दानशूर, दयालु, सत्कार्योंमें निपुण और उदारचित्तवाला पुरुष पीतलेश्यावाला समझना चाहिये।
शुचिर्दीनर तो भद्रो विनीतात्मा प्रियंवदः । साधुपूजोद्यतः साधुः पद्मलेश्यो नयक्रियः ॥ अर्थ-आचार और मनसे शुद्ध, दान देनेमें सदा तत्पर, शुभ चितवन करनेवाला, विनयवान् , प्रिय वचन कहनेवाला, सजन पुरुषोंके सत्कार करने में सदा उद्यत, न्यायमार्गसे चलनेवाला ऐसा जो सजन पुरुष है उसके पद्म लेश्या समझनी चाहिये ।
निनिदानोऽनहंकारः पक्षपातोज्झितोऽशठः। रागद्वेषपराचीनः शुक्ललेश्यः स्थिराशयः ॥ अर्थ-निदानरहित अर्थात् मुझे धन मिले, पुत्रकी प्राप्ति हो, यह मिले, वह मिले इत्यादि विकल्पोंसे रहित; अहंकार रहित, पक्षपात रहित, सजन, रागद्वेषसे परान्मुख और स्थिर बुद्धिवाला जो महात्मा है उसके शुक्ल लेश्या जानना चाहिये।
तेजः पद्मा तथा शुक्ला लेश्यास्तिस्रः प्रशस्तिकाः। संवेगमुत्तमं प्राप्तः क्रमेण प्रतिपद्यते ॥ अर्थ-पीत पद्म और शुक्ल ये तीनों शुभ लेश्यायें हैं । जो पुरुष उत्तम संवेग अर्थात् धर्ममें प्रीतिको प्राप्त होता है उसीको ये क्रमसे प्राप्त होती हैं। .
षट् पट् चतुर्पु विज्ञेयास्तिस्रस्तिस्रः शुभास्त्रिषु । शुक्ला गुणेषु षटरवेका लेश्या निर्लेश्यमंतिमं ॥ अर्थ-प्रथमके चार गुणस्थानोंमें प्रत्येकमें छह छह लेश्या हैं आगेके तीन गुणाथानोंमें अर्थात् पांचवें छठे और सातवें गुणस्थानोंमें पीत पद्म शुक्ल ये तीनों शुभ लेश्या हैं । सातसे