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| १८४ ] तीसरा अध्याय दर्शनिक व्रतिक आदि प्रतिमाधारी श्रावक भी यदि अतिचार रहित आठ मूलगुण आदि अपने अपने गुणोंमें स्थिर न रहे, किसी जगह किसी समय किसीतरह चलायमान हो जायं तो परमार्थसे वे उस प्रतिमासे पहिली प्रतिमामें गिने जायंगे, उस प्रतिमामें नहीं । व्यवहारसे उस प्रतिमामें गिने जा सकते हैं । भावार्थ-जिसने पांचवीं या सातवी प्रतिमा धारण की है । यदि वह उस पांचवीं या सातवीं प्रतिमामें अतिचार ल. गावे तो उसके चौथी या छट्ठी प्रतिमा ही गिनी जायगी । यदि वह चौथी या छट्ठी प्रतिमामें भी अतिचार लगावे तो उसके तीसरी या पांचवीं ही गिनी जायगी । इसीप्रकार प्रत्येक प्रतिमाधारी श्रावक यदि उस प्रतिमा में आतिचार लगावे तो उसे उससे पहिली प्रतिमामें गिनना चाहिये । व्यवहारसे वही प्रतिमा गिनी जा सकती है ॥ ५ ॥ आगे--इसी बातको फिर समर्थन करते हैं
प्रारब्धो घटमानो निष्पन्ना श्चाहतस्य देशयमः ।
योग इव भवति यस्य त्रिधा स योगीव देशयमी ॥६॥ ____ अर्थ--प्रारब्धयोग, घटमानयोग और निष्पन्नयोग ऐसे योगके तीन भेद हैं । इनको धारण करनेवाला योगी नैगम
आदि नयोंकी अपेक्षासे जैसे प्रारब्धयोगी (जिसने योग साधन करना प्रारंभ किया है वह नैगम नयकी अपेक्षा योगी है),