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तीसरा अध्याय त्यागी और परिग्रह त्यागी इनकी ब्रह्मचारी संज्ञा है और ये मध्यम श्रावक कहलाते हैं। तथा अनुमतविरत और उद्दिष्टविरत इनकी भिक्षुक संज्ञा है, और ये उत्कृष्ट कहलाते हैं । अल्प भिक्षुको भिक्षुक कहते हैं ये दोनों मुनिकी अपेक्षासे हीन अवस्थाके हैं इसलिये भिक्षुक कहलाते हैं । ( मुनि भिक्षु कहलाते हैं।) ॥ २-३॥
आगे-नैष्ठिक भी कैसा होनेसे पाक्षिक कहलाता है सो | कहते हैं
दुर्लेश्याभिभवाज्जातु विषये कचिदुत्सुकः । स्वलन्नपि क्वापि गुणे पाक्षिकः स्यान्न नैष्ठिकः ॥४॥
अर्थ--यदि नैष्ठिक श्रावक कृष्ण, नील, कापोत इन तीनों अशुभ लेश्याओं में से किसी लेश्याके वश होकर अर्थात् किसी निमित्तके मिलनेसे चेतनशक्तिका अशुभलेश्यारूप संस्कार तीन प्रतिमाओंको धारण करनेवाला ब्रह्मचारी और अंतकी दो प्रतिमाओंको धारण करनेवाला भिक्षुक होता है। तथा इसके बाद परिग्रहोंका त्यागी मुनि होता है। ___आद्यास्तु षड्जघन्याः स्युमध्यमास्तदनु त्रयः । शेषौ द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने ॥ अर्थ-जैनियोंमें पहिली छह प्रतिमाधारी श्रावकोंकी जघन्य संज्ञा है उसके आगेकी तीन प्रतिमाओंको धारण करनेवालोंकी मध्यम और शेषकी दो प्रतिमाओंको धारण करनेवालोंकी उत्तम संज्ञा है । ऐसा जिनशासनमें कहा है ।