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सागारधर्मामृत
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आगे —— दर्शनिक आदि प्रतिमाओं के नाम कहकर उनके गृहस्थ ब्रह्मचारी और भिक्षुक तथा जघन्य मध्यम उत्तम ऐसें भेद दिखलाते हुये कहते हैं --
दर्शनिकोऽथ प्रतिकः सामयिकी प्रोषधोपवाखी च । सचित्तदिवा मैथुनविरतौ गृहिणोऽणुयमिषु हनिाः षट् ॥२॥ अब्रह्मारंभपरिग्रहविरता वर्णिनस्त्रयो मध्याः । अनुमतिविरतोद्दिष्टविरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टौ च ॥३॥
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अर्थ ——यहांपर अथ शब्दका अर्थ अनंतर है और उका प्रत्येक प्रतिमा के साथ अन्वय है । इससे यह सूचित होता है कि प्रतिमायें एकके बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी इसप्रकार अनुक्रमसे होती हैं । दर्शनिक, व्रतिक, सामयिकी, प्रोषधापवासी, सचितविरत और दिवामैथुनविरत ये छह अर्थात् प्रथनकी छह प्रतिमाओंको धारण करनेवाले श्रावक देशसंयमियों में जघन्य हैं और 'गृहस्थ (गृहस्थाश्रम पालन करनेवाले) कहलाते हैं । तथा अब्रह्मविरत ( ब्रह्मचारी) आरंभ
आगे छह गुणस्थानोंमें अर्थात् आठवेंसे तेरहवें गुणस्थानतक केवल एक शुक्ल लेश्या है और अंतके चौदहवें गुणस्थान में लेश्याका सर्वथा अभाव है ।
१ - षडत्र गृहिणी ज्ञेयास्त्रयः स्युर्ब्रह्मचारिणः । भिक्षुकौ द्वौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो यतिः ॥ अर्थ - इन ग्यारह प्रतिमाओं मेंसे पहिली छह प्रतिमाओंको धारण करनेवाला गृहस्थ होता है । उसके बादकी