SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सागारधर्मामृत [ १८१ आगे —— दर्शनिक आदि प्रतिमाओं के नाम कहकर उनके गृहस्थ ब्रह्मचारी और भिक्षुक तथा जघन्य मध्यम उत्तम ऐसें भेद दिखलाते हुये कहते हैं -- दर्शनिकोऽथ प्रतिकः सामयिकी प्रोषधोपवाखी च । सचित्तदिवा मैथुनविरतौ गृहिणोऽणुयमिषु हनिाः षट् ॥२॥ अब्रह्मारंभपरिग्रहविरता वर्णिनस्त्रयो मध्याः । अनुमतिविरतोद्दिष्टविरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टौ च ॥३॥ - अर्थ ——यहांपर अथ शब्दका अर्थ अनंतर है और उका प्रत्येक प्रतिमा के साथ अन्वय है । इससे यह सूचित होता है कि प्रतिमायें एकके बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी इसप्रकार अनुक्रमसे होती हैं । दर्शनिक, व्रतिक, सामयिकी, प्रोषधापवासी, सचितविरत और दिवामैथुनविरत ये छह अर्थात् प्रथनकी छह प्रतिमाओंको धारण करनेवाले श्रावक देशसंयमियों में जघन्य हैं और 'गृहस्थ (गृहस्थाश्रम पालन करनेवाले) कहलाते हैं । तथा अब्रह्मविरत ( ब्रह्मचारी) आरंभ आगे छह गुणस्थानोंमें अर्थात् आठवेंसे तेरहवें गुणस्थानतक केवल एक शुक्ल लेश्या है और अंतके चौदहवें गुणस्थान में लेश्याका सर्वथा अभाव है । १ - षडत्र गृहिणी ज्ञेयास्त्रयः स्युर्ब्रह्मचारिणः । भिक्षुकौ द्वौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो यतिः ॥ अर्थ - इन ग्यारह प्रतिमाओं मेंसे पहिली छह प्रतिमाओंको धारण करनेवाला गृहस्थ होता है । उसके बादकी
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy