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सागारधर्मामृत
[१८३१ प्रगट होनेसे अथवा किसी निमित्तके मिलनेपर उन अशुभ लेश्याओंका आश्रय लेकर स्त्रीसेवन आदि पांचों इंद्रियोंके विषयोमेंसे किसी विषयमें किसी एक समय भी अभिलाषा करे अथवा पूर्वकालमें अभ्यास न होनेसे वा संयम अति कठिन होनेसे मद्यविरति आदि किसी गुणमें भी वह अतिचार भी लगावे तो वह गृहस्थ पाक्षिक ही कहलाता है, नैष्ठिक नहीं । अभिप्राय यह है कि चाहे वह सब गुणों में अतिचार न लगावे किसी एक गुणमें ही अतिचार लगावे अथवा सब इंद्रियों के विषयोंकी अभिलाषा न करे किंतु किसी एक इंद्रियके विषयकी अभिलाषा करे और वह भी हमेशा नहीं कभी किसी समय, तथापि वह नैष्ठिक नहीं कहला सकता वह पाक्षिक ही गिना जायगा ॥४॥
आगे--दर्शन आदि ग्यारह प्रतिमाओं से किसी एक प्रतिमातक पालन करता हुआ श्रावक उस प्रतिमामें होनेवाले किसी गुणमें यदि अतिचार लगादे तो द्रव्यकी अपेक्षा उसे उसी प्रतिमाका पालन करनेवाला कहेंगे, परंतु भावकी अपेक्षा उसके उससे पहिलेकी प्रतिमा समझना चाहिये यही वात कहते हैं
तद्वदर्शनिकादिश्च स्थैर्य स्वे स्वे व्रतेऽव्रजन् । लभते पूर्वमेवार्थाव्यपदेशं न तूत्तरं ॥५॥
अर्थ-जिसपकार नैष्ठिक श्रावक मद्यविरति आदि गु|णोंमें अतिचार लगाता हुआ पाक्षिक कहलाता है उसीप्रकार
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