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तीसरा अध्याय हैं तथा दर्शन प्रतिमावालेसे दूसरी व्रत प्रतिमावालेके उत्कृष्ट हैं, दूसरीसे तीसरी प्रतिमामें उत्कृष्ट अर्थात् अधिक शुभ हैं, इसीप्रकार अनुक्रमसे जिसकी लेश्यायें विशुद्ध होती गई हैं ऐसे
योगाविरतिमिथ्यात्वकषायजानतोऽगिनां । संस्कारो भावलेश्यास्ति कल्माषास्रवकारणं ॥ अर्थ- प्राणियोंके योग अविरति मिथ्यात्व
और कषायसे जो संस्कार उत्पन्न हुआ है वही भाव लेश्या है और वह अशुभकर्मके आस्रवका कारण है।
कापोती कथिता तीव्रो नीला तीव्रतरो जिनैः । कृष्णा तीव्रतमो लेश्या परिणामः शरीरिणां ।। पीता निवेदिता मंदः पद्मा मंदतरो बुधैः । शुक्ला मंदतमस्तासां वृद्धिः घट्स्थानयायिनी ॥ अर्थ-देहधारी जीवोंके जो तीव्र परिणाम हैं उन्हें कापोती लेश्या, उनसे भी अधिक तीव्र परिणामोंको नीला लेश्या तथा सबसे अधिक तीव्र परिणामोंको कृष्ण लेश्या कहते हैं। तथा इसतरह मंद परिणामोंको पीता, उनसे भी अधिक मंद परिणामोंको पद्मा और सबसे मंद परिणामोंको शुक्ला लेश्या कहते हैं इसप्रकार लेश्याओंकी वृद्धि छह स्थानों में होती है।
रागद्वेषग्रहाविष्टो दुर्ग्रहो दुष्टमानसः । क्रोधमानादिभिस्तीत्रैर्ग्रस्तोऽनंतानुबांधिभिः ॥ निर्दयो निरनुक्रोशो मद्यमांसादिलंपटः। सर्वदा कदनासक्तः कृष्णलेश्यान्वितो जनः ॥ अर्थ-कृष्णलेश्यावाला पुरुष रागद्वेषरूपी ग्रहसे घिरा रहता है, दुराग्रही, दुष्ट विचारोंको करनेवाला अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायोसहित, निर्दय, कठोर, मद्य, मांस आदिके सेवन करनेमें लंपट और पाप करनेमें आसक्त होता है।