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सागारधर्मामृत
पार्श्वे गुरूणां नृपवत्प्रकृत्यभ्यधिकाः क्रियाः । अनिष्टाका त्यजेत्सर्वा मनो जातु न दूषयेत् ॥ ४७॥
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अर्थ -- जिसप्रकार राजाओंके समीप क्रोध हास्य आदि स्वभावसे अधिक क्रियायें नहीं की जातीं उसीप्रकार गुरुके समीप भी कोष हास्य विवाद आदि जो क्रियायें स्वभाव से अधिक अर्थात् विकारसे उत्पन्न होनेवाली हैं वे क्रियायें नहीं करनी चाहिये। इनके सिवाय गुरुके समीप जिन क्रियाओंका वा चेष्टाओंका शास्त्रों में निषेध किया है अर्थात् जो शास्त्रविरुद्ध हैं ऐसी क्रियायें भी नहीं करनी चाहिये | ये ऊपर लिखी हुईं क्रियायें गुरुके समीप कभी नहीं करनी चाहिये यदि श्रावक रोगी वा दुःखी हो तथापि उसे भी ये क्रियायें नहीं करनी चाहिये ॥ ४७ ॥
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आगे -- दान देकर पात्रों को भी संतुष्ट करना चाहिये ऐसा जो पहिले लिखा गया था उसी दानकी विधिको बढ़ाकर दिखलाते हैं
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१-निष्ठीवनमवष्टंभं जृंभणं गात्रभंजनं । असत्यभाषणं नर्महास्यं 1 पादप्रसारणं ॥ अभ्याख्यानं करस्फोटं करेण करताडनं । विकारमंगसंस्कारं वर्जयेद्यतिसन्निधौ ॥ अर्थ - थूकना, गर्व करना, जंभाई लेना, शरीर मोडना, झूठ बोलना, खेलना, हंसना, पैर फैलाना, झूठा दोष आरोपण करना, हाथ ठोंकना, ताली बजाना, तथा शरीरके अन्य विकार करना और शरीरका संस्कार करना इत्यादि क्रियाओंको गुरुके समीप नहीं करना चाहिये ।