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सागारधर्मामृत
[१४५ भावो हि पुण्याय मतः शुभः पापाय चाशुभः ।
तहुष्यंतमतो रक्षेद्धीरः समयभक्तितः ॥ ६५ ॥ ___अर्थ--सिद्धांतके अनुसार शुभ परिणामोंसे पुण्यबंध होता है और अशुभ परिणामोंसे पापका बंध होता है इसलिये जिनके स्वभावमें कुछ विकार नहीं होता ऐसे धीर पुरुषोंको उचित है कि वे जैनशासनकी भक्तिसे अर्थात् कलिकालमें भी ये जैनशासनको (जैनमतको) धारण करते हैं इसलिये ये जिनदेवके समान पूज्य हैं ऐसी अनुराग बुद्धिसे हटते हुये अर्थात् दूषित होते हुये अपने परिणामोंकी रक्षा करें । अभिप्राय यह है कि जिनधर्मके धारण करनेवालों में भक्ति न होना अशुभ परिणाम हैं ऐसे परिणामोंको रोकना चाहिये और उनमें भक्तिरूप शुभ परिणाम करना चाहिये कि जिससे पुण्यका बंध हो ॥६५॥
आगे--ज्ञान और तप दोनों अलग अलग, तथा मिले हुये और उनके धारण करनेवाले क्यों पूज्य हैं उसमें हेतु कहते हैं-- __यथा पूज्यं जिनेंद्राणां रूपं लेपादिनिर्मितं । तथा पूर्वमुनिच्छायाः पूज्याः संप्रति संयताः ॥ अर्थ-जिसप्रकार चित्र आदिसे बनाया जिनेंद्रदेवकारूप पूज्य है उसी प्रकार वर्तमानकालके मुनि पूर्वकालके मुनियोंके प्रतिरूप हैं इसलिये ही वे पूज्य हैं।