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सागारधर्मामृत
[ १५५ इसीप्रकार देवकुल राजाके यहां बुहारी देनेवाली कोई कन्या थी उसने औषधदान देकर किसी मुनिका रोग दूर किया था उस औषधदान के प्रभावसे वह मरकर शेठ धनपतिकी वृषभसेना नामकी पुत्री हुई थी और वहां उसे ज्वर अतिसार आदि अनेक रोगोंको दूर करनेवाली सर्वोषधि ऋद्धि प्राप्त हुई थी । तथा एक सूकरने अपने पहिले भवमें मुनियोंके लिये बसतिका बनवानेका अभिप्राय किया था और उस भवमें मुनिकी रक्षा की थी इन दोनों कार्योंमें जो कुछ उसके शुभ परिणाम हुये थे उन शुभ परिणामोंसे वह सौधर्मस्वर्ग में बडी ऋद्धिको धारण करनेवाला उत्तम देव हुआ था । तथा गोविंद नामका एक ग्वालिया था उसने पुस्तककी पूजा कर विधिपूर्वक वह पुस्तक मुनिके लिये अर्पण की थी इसलिये उस दानके प्रभावसे वह कौंडेश नामका मुनि होकर द्वादशांग श्रुतज्ञानरूपी महासागरका पारगामी हो गया था ॥ ७० ॥
आगे - जिनधर्म की परंपरा चलानेके लिये जो मुनि न हों तो उनकी उत्पत्ति करना और जो विद्यमान मुनि हैं उनके रत्न - त्रय आदि गुण बढाते रहना इन दोनों कार्योंके लिये प्रयत्न करने को कहते हैं-
जिनधर्म जगद्वंधुमनुबुध्दुमपत्यवत् । यतीन् जनयितुं यस्येत्तथोत्कर्षायितुं गुणैः ॥ ७१ ॥
अर्थ -- हम लोग अपने कुलकी परंपरा निरंतर चलाने