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दूसरा अध्याय हिंस्र दुःखिसुखिप्राणिघातं कुर्यान्न जातचित् । अतिप्रसंगश्वभ्रार्तिसुखच्छेदसमीक्षणात् ।। ८३ ॥
अर्थ-अपना कल्याण चाहनेवाले गृहस्थोंको हिंसक दुखी, सुखी आदि जीवोंका भी कभी घात नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे नीचे लिखे हुये अतिप्रसंग आदि दोष आते हैं । क्रमसे उन्हीं दोषोंको दिखलाते हैं। कितने ही लोगोंका ऐसा मत है कि " सिंह व्याघ्र सर्प रीछ आदि जा हिंसक पशु हैं उन्हें अवश्य मार देना चाहिये क्योंकि वे सदा अपनेसे अशक्त जीवोंको मारते रहते हैं इसलिये उनसे दूसरे जीवोंको भी दुःख होता है और उन्हें स्वयं बहुत हिंसा लगती है । जिससे वे जन्मांतरमें दुर्गतिको प्राप्त होते हैं, यदि ऐसे सिंह आदि जीव मार दिये जायंगे तो वे भी अधिक पाप करनेसे बचेंगे और दूसरे जीवोंको भी दुःख न होगा" परंतु यह उनका कहना ठीक नहीं है क्योंकि अतिप्रसंग दोष आता
१-रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति मत्वा कर्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानां ॥ अर्थ-इस एकही जीवके मारनेसे बहुतसे जीवोंकी रक्षा होती है ऐसा मानकर हिंसक जीवोंका घात कभी नहीं करना चाहिये । ।
बहुसत्त्वघातिनोऽभी जीवंत उपार्जयंति गुरुपापं । इत्यनुकंपां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिस्राः ॥ अर्थ- बहुत जीवोंको घात करनेवाले ये जीव जीते रहेंगे तो अधिक पाप उपार्जन करेंगे' इसप्रकारकी दया | करके हिंसक जीवोंको नहीं मारना चाहिये ।